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प्रेम उगाती हूँ.आखिर मैं भी किसान हूँ...


मैं भी किसान हूँ...
अनाज उगाने वालों से ज़रा अलग तरह की...
मैं अनाज नहीं उगाती..यूँ के ज़मीन नहीं पास..
मैं उगाती हूँ प्रेम..
मन की ज़मीन पर..
अच्छी होती है सदा फसल प्रेम की..
किसी के नफरत की अधिक धूप ....
गुस्से की अतिवृष्टि...
छल का सूखा..
या मेघ ईर्ष्या के,
इस प्रेम की फसल पर अहं के कीट लगने नहीं देते...
साथ ही ये प्रेम की फसल अनाज की फसल की तरह महीनों नही लेती बढ़ने में..
बस एहसास की एक खाद...
और फसल तैयार...
ज़िन्दगी का हर रिश्ता प्रेम की इस फसल को जब चाहे काट कर ले सकता है...
मैं उगाती भी तो इसी लिए हूँ...
मन की उर्वरता कम भी नहीं होती..
बल्कि जीवित रहता है मन...इस फसल के होने से....
पर मन की जो सरकार है..
उससे समर्थन मूल्य कभी नही मिला...
झूठ क्यों कहूँ के बदले में उम्मीद नहीं होती....
बिल्कुल होती है.. किसान हूँ...
एहसास के खाद प्रेम के बीज...
इनसब में मेरा हृदय वक्त खर्च करता है...
पर फिर , मन की सरकार नैतिकता भर देती है...
कहती है-

"प्रेम की फसल तो बांटने के लिए है...
इसका समर्थन मूल्य क्या हो सकता है???
जो उम्मीद हो कोई या कोई आशा बदले में...
तो नहीं हो तुम सच्ची किसान प्रेम के फसल की..."

हृदय कहता है फिर- "ऐसा है नही ज़रा भी..
मैंने देखा है कई-कई बार कपट से प्रेम की फसल का दिखावा करने वालों को भी तुम देते हो समर्थन मूल्य...
अधिकतर लोगों को देते हो...बस कुछ को नहीं"

फिर सरकार-
"तुम फ़िज़ूल सवाल करो नही..
तुम बिना किसी चाह के बस करो खेती...यही तुम्हारा कर्तव्य होता है...चाहो तो छोड़ दो...पर सोच लो फिर करोगी क्या"

मेरा हृदय-

"जैसी इच्छा आपकी.."

इस तरह सरकार हर बार जीत जाती है...
और हार जाता है मेरा हृदय


अब उम्मीद कम होती है....
उम्मीदें ख़त्म हो गई हैं ऐसा नही है...
पर बेहद कम हुई हैं..ज़रूर ही
पर कोशिश है कि ये उम्मीदें हो जाएं समाप्त
सदैव सदैव हेतु..
परन्तु इतना सरल है भी तो नही..
सरल तो किसान होना भी नहीं है...
फिर भी कोशिश जारी रखी जा सकती है...

आखिर मैं भी किसान हूँ...
प्रेम उगाती हूँ....
                  


(रोशनी बंजारे "चित्रा")

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