प्राकृति की है यही दासता जल जंगल से रखो वास्ता
प्राकृति की है यही दासता
जल जंगल से रखो वास्ता
क्योंकि दुख सुख का बस हम है रास्ता
इंसान तू क्यों हमे बंट ता
हमारे अंदर तू क्यों नह झांकता
मेरी हवाये रूठी रूठी
पक्षी भी है रोती रहती
मिटा दिया तूने जंगल सारा
लूटने को है अस्तित्व तुम्हारा
हम नह रहते इस जहां म जी
फिर तुम कैसे जीते जी
कल कल करती नदिया भी कहती
मैं अपने लिए नह हु बहती
रोक दिया जो रास्ता मेरा
कैसे सवारु जग ये सारा
कुछ कहती मेरी नदिया न्यारी
मेरी जीवन पूरी है तुहारी
पेड़ पत्ते पौधे भी कहते
हम मर जाते तुम कैसे जीते
काट रहे मुझे कतरा कतरा
बाँट रहे हो टुकड़ा टुकड़ा
बिन बोले मैं अपने आप ही आजाऊ
मरने पर भी कुछ नह कह पाऊ
धरती को तुम किये हो बंजर
कितना भयानक देखो ये मंजर
हरियाली जहाँ पे होती रहती
धूप की गर्मी अब वहा पे होती
हमको बनाये खेलने का मैदान
क्या कही और से आ रहा खाने का सामान
बादल भी गर्जना छोड़ गए
पेड़ भैया जो खो गए
छीने लिए तुम इनकी मुस्कान
कहा से आये खेतो म धान
रख लो मेरी प्राकृतिक का ख्याल
क्यो की कुछ ही समय है मेरे पास
प्रकृति की है यही दासता
जल जंगल से रखो वास्ता
प्रदीप मरकाम
भिलाई नगर दुर्ग
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