Header Ads

महुआ : जीवन का आधारवृक्ष


पीयूष कुमार 
महुआ... यह शब्द कानो में घुलते ही एक जंगली, अनछुई, उमंगित और मादक अनुभूति देह से आत्मा तक घुलती जाती है। यह ऐसा इसलिए कि यह मनुष्य की जड़ों से जुड़ा हुआ है। आज कथित सभ्य समाज भले इससे कटा हुआ हो, सौ बरस पहले तक भारत के सभी मनुष्यों की देह से होकर यह गुजरा है। यह मध्य भारत का सबसे उपयोगी, लोकप्रिय और जरूरी पेड़ है। खास बात यह बिल्कुल देशी है। वास्तव में जो जंगलों में है, वही तो देशी है, पुराना है। संस्कृत में यह 'मध्व' है जिसे अंग्रेजी/लेटिन ने वैसा ही लिया और कहा, मधुका। इससे बनी शराब संस्कृत में कहलाई, 'माध्वी'।




लगभग 20 मीटर की औसत ऊंचाई वाले इस पेड़ का हर अंग मनुष्य के काम का है। पत्तों के दोने, शाखों की जलाऊ लकड़ी, कच्चे फल को सब्जी बनाओ और पके फल को वैसा ही खाओ। छाल का औषधीय प्रयोग तो बीज का तेल बहुपयोगी है।  तेल को बघार लो या डालडा बना लो या साबुन बना लो या बाती बार लो और नही तो हाथ गोड़ में चुपड़ लो। इसके रस को डीजल में डालकर इस्तेमाल की बात भी हो चुकी है। बारह साल पहले बीबीसी की खबर के अनुसार छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मंत्री ननकीराम कंवर अपनी बाइक में एक चौथाई महुये का रस डालकर चलाते थे।

पर महुआ शब्द जिससे प्रसिद्ध है, वह है इसका फूल। जब पेड़ के पत्ते झर जाते हैं फागुन में उसके बाद झरते हैं मौहा। बस्तर में यह मौहा उच्चारित होता है। कोचियाये हुए फूल रात भर उकसते हैं और सुबह होते ही टपाटप गिरते हैं। यह एक अद्भुत दृश्य है। मौहा का टपकना दोपहर होते बन्द हो जाता है। इसे बीनने में ज्यादातर बच्चे बूढ़े और महिलाएं संलग्न रहती हैं। इस समय जंगल की मादकता के क्या कहने।  इसकी मदमस्त खुशबू से जीवन में प्राण भर उठता है। मौहा के फूल की एक खासियत यह है कि यह खराब नही होता और सालभर बाद भी इसे पानी मे डाल दिया जाए तो वैसा ही हो जाता है जैसा पहले था, डाल से टपके फूल की तरह। इस फूल की पूरी बनती है 'मौहारी'। यह रोटी में भी मिलाकर पकाया जाता है। वहां इसका स्वाद शहद सा आता है। यह पिछली पीढ़ी ने बचपन मे जरूर खाया है। मौहा ग्रामीण और जनजातीय जीवन का आर्थिक स्तंभ भी है।

इधर शहरी मदिरप्रेमी जब जंगलों में खासकर बस्तर और सरगुजा में जाते हैं तो महुये की अच्छी शराब जरूर खोजते हैं। बस्तर में जो कॉन्स्टेंट शराब होती है, वह 'फुल्ली' कहलाती है। और जो डॉल्यूट होती है, उसे 'राशि' कहते हैं। किसी विशेष स्थिति में यह निर्धारित मात्रा में लेने पर औषधि का काम करती है पर जैसा कि सर्वविदित है, इसकी लत ही ज्यादा पड़ती है और शरीर, परिवार और समाज खराब होता है। महुये की शराब बनती कैसे है, उसपर बाद में कभी।

महुये की गौरव गाथा अभी शेष है। कल पढेंगे बस्तर के कोयतोर (गोंड) समाज के माध्यम से महुये और मनुष्य का आदिम अन्तर्सम्बन्ध और सुनेंगे महुये का ओरिजिनल सरगुजिहा गीत। प्रस्तुत तस्वीर मेरे कॉलेज जो कि महुये के जंगल के बीच निर्मित है, उसके सामने वाले पेड़ की है। उन पेड़ों और आपको जोहार !

सभार- पीयूष कुमार के फेसबुक वॉल से

1 comment:

Powered by Blogger.