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प्राकृतिक के दलालों तुम्हारी जिंदगी बस कुछ पलों की क्योंकि हमारी खुसिया तुम्हे कभी दिखी नहीं



अब खुशी मिलेगी कैसे उनको।
 जो कहते थे घर गाँव में है ।
छीनने को है धरती उनकी
जो सदियों से पेड़ों की छांव में है।

भूल गये हैं बच्चे उनको
जिसने चलना सिखाया है।
जिनको ना पैसे का पता था
खून का ठप्पा इन पर लग आया है।

जमीन बस कागजों में रह गई
प्रकृति का मोल ना बच पाया है।
कैसे बचायें हम तुम्हारे अस्तित्व को
तुम्हारे अपनों ने ही तुम्हें बिकवाया है।

बेदखल करके हमारी जमीनों से
स्वयं की मृत्यु शैय्या बनाओगे
आदिवासियों को जंगल से हटाकर
इस धरती पर जीवन कहां से लाओगे।

इसका कोई तोड़ नहीं है ।
अब रास्तों में हमारी होड़ लगी है
ये लड़ाई अब रुकेगी नहीं
सांसे भी तुम्हारी अब थमेगी यहीं ।

रोक लो अब जितना रोकना है
हमारा जीवन जंगल में बसा है
यह हमसे नहीं छूट पायेगा
अब हर कोई लौटकर यहीं आयेगा।

अब ना देखी जाती अब न सही जाती

प्रदीप मरकाम
भिलाई

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