ग्राउंड रिपोर्ट: आदिवासियों के एक देवता से मुलाकात!
तामेश्वर सिन्हा - बस्तर। एक पहाड़ आदिवासी जीवन शैली में अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान रखता है। जल, जंगल, जमीन से बढ़कर उनके किए कुछ नहीं होता। उनकी मान्यताएं रहन-सहन इन्हीं चीजों पर केंद्रित होकर चलती हैं। प्रकृति पर निर्भर रहकर वैज्ञानिक तर्क से उनकी दृष्टि संचालित होती है । लेकिन हमारी सरकारें एक पहाड़ को उखाड़ने में उफ्फ तक नहीं करती हैं । उन्हें उस पहाड़ से खनिज सम्पदाएं चाहिए लेकिन वो नहीं जानती हैं कि उन पर्वतों में आदिवादियों के देवों का निवास होता है, वो किसी मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करते और न ही हिन्दू संस्कृति की मान्यताएं उन पर लागू होती हैं फिर भी इन सब चीजों को आज उन पर थोपा जा रहा है।
छत्तीसगढ़ का बस्तर आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है। यहां अनेक पहाड़ मौजूद हैं जहां खनिज सम्पदाएं भी प्रचुर मात्रा में पाई जाती हैं। इसी में से एक बस्तर के कोंडागांव से 70 किमी की दूरी पर विश्रामपुर ब्लाक के तहत खल्लारी गांव में आने वाला मांझिनगढ़ पर्वत है। जो आदिवासियों की परंपरागत सभ्यता और उनकी सांस्कृतिक का आस्था का अटूट केंद्र है । पहाड़ पर चढ़ने के लिए 10 किमी पैदल चलना पड़ता है। ऊपरी भाग में पठार स्थित है । जहां पूरी एक बस्ती बस सकती है। प्राकृतिक स्रोत झरनों का यह भंडार है। छोटे-बड़े दर्जनों नाले यहां मौजूद हैं, जो आदिवासियों की पानी की आवश्यकता को पूरी करते हैं। यहां एक विशाल तालाब भी मौजूद है। यह पर्वत प्राकृतिक वादियों से आच्छादित है ।
यह भी बता दें कि आदिवासी यहां कोयतुर कहलाना पसंद करते हैं। कोयतुर भी गोंडी शब्द है। कोयतुर बोलने से गांव की सामुदायिक व्यवस्था के तहत आने वाले सारे समुदाय समाहित हो जाते हैं। हिन्दू देवी-देवताओं की कहानियों का यहां दूर-दूर तक किसी प्रकार का वास्ता नहीं रहता है।
अभी 8 सितम्बर को यह आदिवासियों का देव जिसे गोंडी में पेन कहा जाता है, भादों जात्रा समपन्न हुआ। जात्रा आदिवासियों की आदिम परम्पराओं की एक प्रक्रिया है । जिसमें वो प्रकृति की पूजा करने के लिए नियम-कायदे तय करते हैं। इस जात्रा के जरिये गांव में फैल रही अनेकों बीमारियों और अनैतिक कार्यों को तेल-हल्दी का प्रतीक मानकर वो अपने देवी के समक्ष प्रस्तुत कर उन्हें फेंक देते हैं । उनकी मान्यताओं के अनुसार इस प्रक्रिया का तात्पर्य गांव में खुशहाली लाना है। 8 अगस्त को शुरू होकर जात्रा 9 अगस्त की सुबह देवी-देवताओं की विदाई के साथ संपन्न हुआ ।
जिस पर्वत को देखकर आम लोग वहां जाने से पहले दस बार सोचेंगे। वहां रात को स्थानीय आदिवासियों के 30 से ज्यादा प्लास्टिक के तंबू गड़े हुए थे। जो रात में टार्च की रोशनी के साथ अत्यंत मनमोहक लग रहे थे। सभी अपने खाने-पीने की व्यवस्था के साथ वहां शामिल हुए। यहां तक कि ओडीशा समेत अन्य राज्यों के आदिवासी भी वहां मौजूद थे। ये सारे आदिवासी जात्रा सम्पन्न कराने वहां इकट्ठा हुए थे जहां उनके आदिम देव स्थापित हैं ।
इन सबसे परे ये महत्वपूर्ण है कि एक पर्वत किस तरह आदिवासी समुदाय के लिए महत्वपूर्ण है। क्षेत्र के मांझी (कई गांव के प्रमुख को मांझी कहा जाता है) संतोष नेताम बताते हैं कि पर्वत को गोंडी में मट्टा कहा जाता है । जिसका भावार्थ ही होता है कि हम यहां जिएंगे और यहीं मरेंगे। पर्वत में एक देवी स्थापित होती है जिसे गढ़ मावली कहते हैं। ये माता होती है जिसे गोंडी में याया कहते हैं । पवर्त में सबसे महत्वपूर्ण कोयतुरो का देवी होता है।
आपको यह भी बता दें कि आदिवासियों की मान्यताओं के अनुसार बच्चा जब छोटा होता है तो रोते वक्त उसके मुंह से या.. या.. रोने की आवाज आती है । इसी लिए मां को याया कहा जाता है ।
पर्वत में गढ़ की रक्षा करने वाले गढ़ के मालिक को गढ़िया कहा जाता है । ग्रामीण बताते हैं कि आज भी राजधानियों के नाम होने के बावजूद वो गढ़ अथवा परगना के सिस्टम के अनुसार चलते हैं। उनके लिए कोई राज्य-जिला सीमा निर्धारित नहीं होती है। सिर्फ गढ़-परगना का क्षेत्र ही सीमा निर्धारित करती है। परगना 30 से 50 गांवों को मिलाकर एक परगना का निर्माण होता है ।
पर्वत में एक और आस्था का देव मौजूद होता है जिसे गोंडी भाषा में तलूरमुत्ते कहा जाता है। आदिवासी ग्रामीण तलूरमुत्ते शब्द को परिभाषित करते हुए बताते हैं कि तलूर का मतलब मुर्गी होता है। मुत्ते का मतलब मां। मुर्गी जैसे अपने बच्चों को संभाल कर रखती है वैसे ही गांव के पर्वत को तलूरमुत्त संभाल कर रखती है। पर्वत के पेड़ मौसम संकेतक होते हैं पत्ते के सिकुड़ने से पानी का अनुमान लगाया जाता है और उससे अकाल का अनुमान लगाया जा सकता है ।
क्षेत्र के आदिवासी जगत मरकाम बताते हैं कि सुबह से लेकर शाम तक कोयतुर आदिवासियों का जीवन चक्र पहाड़ में गुजरता है । लेकिन मौजूदा उद्योपतियों की सरकार पहाड़ों को चीर कर खनिज संपदाओं के दोहन के लिए पहाड़ उझाड़ देती है। उस एक पहाड़ के उजाड़ने से हजारों आदिवासियों की आदिम आस्था और प्राकृतिक चक्र को नुकसान पहुंचता है जिसका नतीजा भयवाह बारिश और बाढ़ आदि के रूप में सामने आते हैं।
उड़ीसा में स्थित नियमगिरी का उदाहरण देते हैं। बताते हैं कि किस तरह वेदांता ने बाक्साइड उत्खनन के लिए वहां के नियमगिरी पहाड़ का सौदा कर डाला था। वो डरते हुए आशंका जताते हैं कि यहां भी खनिज सम्पदाएं हैं, कई दफे सर्वे भी हो चुका होता है आस-पास पहाड़ियों में भी सर्वे हुआ है । गांव वाले कहते हैं इस पहाड़ को भी उजाड़ा न जाए लेकिन हम ऐसा नहीं होने देंगे। पहाड़ की रक्षा करेंगे।
(तामेश्वर सिन्हा अपनी जमीनी रिपोर्टिंग के लिए जाने जाते हैं। और आजकल बस्तर में रहते हैं।)
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