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बस्तर में भरमार बन्दुक आदिवासियों का पारम्परिक औजार..

 अवैध हथियार के रुप में जब्ती की गई भरमार बन्दुक जो कि हथियार नहीं आदिवासियों का पेन हैं ।

कांकेर:- बस्तर में आदिवासियों पर नक्सल उन्मूलन के नाम पर लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओ पर हमेशा से हमला होते आ रहा है , साथ ही संस्कृति-सभ्यता को भी सुनियोजित तरीके से नष्ट किया जा रह है, बस्तर में नक्सलवाद ने जब से अपना पैर पसारा है आदिवासियों की संस्कृति और उनके रहन सहन को अपने कब्जे में लिया है नतीजा यह है की आज बस्तर में नक्सल उन्मूलन के नाम पर तैनात फ़ोर्स हर आदिवासी को नक्सली समझ बैठती है? आदिवासियों की पारम्परिक औजार भरमार बन्दुक जिसे आदिवासी अपना पेनक मानते है और उसकी सेवा करते है आज वही पारम्परिक औजार आदिवासियों के लिये जी का जंजाल बन गया है। बस्तर में लगभग आदिवासी समुदाय भरमार बन्दुक की सेवा करते है। लेकिन बस्तर में नक्सल उन्मूलन के नाम पर तैनात फ़ोर्स उनकी सेवा को नक्सल समर्थक मान बैठती है। हमेशा सुर्खियों में रहा है कि भरमार के साथ नक्सली ने समर्पण किया। दरसल यह भरमार के साथ का समर्पण हमेशा सवालों के घेरे में रहा है । नक्सलियों ने भी आदिवासियों के पारंपरिक औजार भरमार बन्दुक का उपयोग बखूबी किया है । लेकिन सरकार और नक्सलवाद को क्या मालूम है की आदिवासियों का पारम्परिक औजार भरमार की आदिवासी समुदाय सेवा करता है और उनका यह संस्कृति है । यही भरमार बन्दुक(औजार) आज बस्तर के हर आदिवासी के लिये एक विनाश साबित हो रहा है । और उनकी संस्कृति की विलुप्तता बरकारार है |

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भरमार क्या है और उसकी उत्पत्ति कैसे होती है???
आदिवासी समुदाय आदिम काल से ही रचनात्मक गुण पाया गया है जैसे आग की खोज , हिंसक पशुओं को नियंत्रित करने के लिए टेपरा, कोटोड़का का विकास कर हिंसक प्रवृत्ति को मधुर ध्वनि से नियंत्रण में कर पशुपालन का व्यवस्था कायम किये । वैसे ही शिकार करना भी आदिवासी की एक महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति रही है। शिकार के लिए प्रयुक्त पारम्परिक औजार बरछी, भाला ,त्रिशूल ,कटार व भरमार का प्रयोग करते आ रहे हैं । यह सभी पारम्परिक औजार आज भी आदिवासी क्षेत्रों में बहुत कम मात्रा में पाये जाते हैं । गोण्डवाना लेण्ड के रहवासियों में टण्डा, मण्डा व कुण्डा नेंग पूरे जीवनकाल को पूर्ण करती है। इन नेंग के बिना कोई भी कोयतोर का जीवन असंभव है।
जब किसी शिकारी आदिवासी की मृत्यु होती है तब मरनी काम के दौरान कुण्डा होड़हना नेंग होता है। कुण्डा होड़हना मतलब पानी घाट से हासपेन मतलब मर कर पेन होने की क्रिया के महत्वपूर्ण नेंग कुण्डा होड़हना होता है जिसमें पानी घाट जैसे तालाब या नदी से कोई भी जलीय प्राणी (जीव) को नये मिट्टी के घड़ा में रखा जाता है। तब यह जीव में ही उस मृत व्यक्ति का जीव उस परिवार के पेन बानाओं से मिलान करने हेतु लाया जाता है। इसी दौरान उस परिवार के विशेष रिश्तेदार सदस्य को पेन जनाता है मतलब स्वप्न या अन्य माध्यम से उसे दिखाई देता है कि अमुक मृत सदस्य किस रुप के पेन में पेन रुप में आना चाहता है। यही कुण्डा होड़हना के दौरान होने वाली भरे सामाजिक मांदी में किया जाता है।
यही प्रक्रिया के दौरान यदि शिकारी व्यक्ति के मृत्यु उपरान्त किया जाता है तब वह उसके लोकप्रिय औजार भाला,बरछी, त्रिशूल या भरमार को चयन करता है। वह उसी हथियार में पेनरुप में आरुढ़ हो जाता है। यही औजार भविष्य में पेन रुप में उस परिवार के खुंदा पेन के रुप में जन्म लेते हैं और उस परिवार की रक्षा व मार्गदर्शन करते रहते हैं ।
यह इन हथियारों की पेन बनने की प्रक्रिया है।

बदलते परिवेश में पेनक औजारों की स्थिति ::::
उस समय में इन भरमार या पेनक औजारों को जो उस दौरान परम्परागत बुमकाल (पंचायत)  द्वारा स्वीकृति प्रदान की जाती थी जो बाद में पंजीकृत हुए । इन पंजीकृत भरमारों को थाना व्यवस्था स्थापित होने व नक्सली गतिविधियां होने के बाद सरकार द्वारा थानों में रखने का फरमान जारी किया गया । आज भी बस्तर संभाग या अन्य आदिवासी क्षेत्रों के थानों में कई भरमार पेनक जमा किये गये हैं । वही उस दौरान या उसके बाद भी कई पेनक भरमार जो पंजीकृत नहीं हो पाये या बाद में पेनकरण हुये उसे पुलिस द्वारा अवैध हथियार के रुप में जब्ती की गई जो कि हथियार नहीं पेन हैं । आदिवासी क्षेत्रों में आज भी आंगापेन जब मड़यी मेला या किसी अन्य पेन कार्यों से उन थानों से गुजरते हैं तब आंगापेन उन थानों में स्वस्फुर्त प्रवेश करके जब्ती कमरे के पास जाकर जोहार भेंट करते हैं । उसके बाद ही गंतव्य की ओर अग्रसर होते हैं । वर्तमान में इन पेनक भरमार को ग्रामीण आदिवासियों के द्वारा पेनक बताये जाने के बावजूद भी पुलिस द्वारा जबरन जब्ति करते हुए केस बनाया जाता है।

"इस सम्बन्ध में युवा आदिवासी नारायण मरकाम कहते है कि बस्तर में जो अवैध हथियार के रूप में पुलिस द्वारा आदिवासी ग्रामो से भरमार बन्दुक जप्त कर केस बनाया जाता है या उन्हें नक्सली समर्थक बताया जाता है दरसल भरमार आदिवासियों का पारंपरिक औजार है , वह इसकी सेवा कई वर्षो से करते आ रहे है, भरमार बंदूक होना मतलब हर आदिवासी नक्सली नहीं है यह उनकी संस्कृति है जो पारम्परिक औजारों जैसे बरछी, भाला ,त्रिशूल ,कटार व भरमार का प्रयोग शिकार के लिए प्रयुक्त करते आ रहे है|"


साथियों और पाठक गण भरमार बन्दुक आदिवासियों की पारम्परिक औजार के रूप में सेवा करने का लेख पूरा करने में एक आज्ञात मूलनिवासी शोध कर्ता ने मदद की है , मेने सारे पहलूवो को लाने का भरपूर प्रयास किया है तत्पश्चात भी अगर कोई चीज आंकड़े छुट गये है तो उन्हें अवगत कराने में आपका स्वागत है 
tameshwar sinha 


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