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हाथ में कलम, सिर पर कफन





नक्सल प्रभावित राज्य छत्तीसगढ़ में हर दूसरे दिन नक्सलियों और सुरक्षाकर्मियों के बीच मुठभेड़ की खबरें आती रहती हैं. इस खूनी संघर्ष में पत्रकारों की जान पर खतरा बना रहता है. ऐसे में यहां निष्पक्ष पत्रकारिता कर पाना मुश्किलों भरा है


राज्य के पत्रकार नक्सल प्रभावित इलाकों से न सिर्फ समाचार भेजता है बल्कि कई बार तो उन्हें जवानों के क्षत-विक्षत शवों को भी गंतव्य तक पहुंचाना पड़ता है. 17 अप्रैल 2015 की एक घटना है. दक्षिण बस्तर के पामेड़ पुलिस थाने के तहत आने वाले नक्सल क्षेत्र कंवरगट्टा में पुलिस और नक्सलियों की मुठभेड़ हुई थी. इसमें आंध्र प्रदेश के ग्रे हाउंड्स फोर्स (नक्सल ऑपरेशन के लिए आंध्र प्रदेश में खासतौर पर तैयार फोर्स) के सर्किल इंस्पेक्टर शिवप्रसाद बाबू शहीद हो गए थे. लेकिन आंध्र प्रदेश व छत्तीसगढ़ पुलिस चार दिन तक शहीद अधिकारी के शव को बाहर नहीं निकाल सकी. फिर नवभारत अखबार के बीजापुर संवाददाता गणेश मिश्रा को पुलिस टीम के साथ भेजा गया. उन्होंने मध्यस्तता कर ग्रामीणों से शव सौंपने का अनुरोध किया. तब कहीं जाकर पुलिस अधिकारी का शव पामेड़ लाया गया. उस समय बस्तर आईजी हिमांशु गुप्ता ने पत्रकार का आभार माना था. इस पूरे मामले में गणेश मिश्रा ही वह पहले पत्रकार थे, जो घटनास्थल पर पहुंचे थे. उन्होंने ही वहां से लौटकर इस बात की तस्दीक की थी कि शिवप्रसाद बाबू नक्सलियों की गोलियों का शिकार हो गए हैं. इसके पहले तक तो पुलिस अपने अधिकारी को लापता ही मान रही थी. जवान का शव आंध्र प्रदेश व छत्तीसगढ़ की सीमा से लगभग 20 किलोमीटर दूर कंवरगट्टा गांव में तालाब की मेड़ पर लावारिस हालत में पड़ा हुआ था. जिला मुख्यालय बीजापुर से घटनास्थल की दूरी 85 किलोमीटर थी. घटना के बाद पुलिस तीन दिनों तक कंवरगट्टा नहीं पहुंच पाई थी. तब गणेश मिश्रा ही ऊबड़-खाबड़ रास्तों से होते हुए, अपनी जान की परवाह न करते हुए उस इलाके में पहुंचे, जहां नक्सलियों ने पुलिस को पीछे खदेड़ दिया था और एंबुश के डर से पुलिस दोबारा उस इलाके में नहीं घुस पा रही थी.
यह तो एक छोटा-सा उदाहरण है, जब बस्तर के किसी पत्रकार ने अपनी जान जोखिम में डालकर पुलिस अधिकारी का शव लाने में मदद की है. छत्तीसगढ़ में ऐसे असंख्य मामले हैं, जिनमें पत्रकारों ने कभी स्वेच्छा से तो कभी पुलिस के अनुरोध पर न केवल मृतकों की संख्या की तस्दीक की, बल्कि उनके शवों को सुरक्षित बाहर निकालने का काम भी किया. छत्तीसगढ़ में अब यह भ्रांति भी टूटने लगी है कि नक्सली पत्रकारों पर हमला नहीं करते. नक्सलियों द्वारा गरियाबंद के नेमीचंद जैन और बस्तर के साईं रेड्डी की हत्या करने के बाद अब पत्रकारों की जान पर खतरा और बढ़ गया है. हालांकि दोनों की हत्या करने के बाद नक्सलियों की दंडकारण्य जोनल कमेटी के प्रवक्ता गुडसा उसेंडी ने बयान जारीकर माफी मांगी और भविष्य में ऐसा न करने की बात भी कही. लेकिन पत्रकारों पर मंडराता खतरा यहीं खत्म नहीं हो जाता. उन्हें लगातार प्रेशर बम, लैंड माइन बिछे हुए इलाकों में काम करना होता है. कई बार वे पुलिस व नक्सली मुठभेड़ की क्रॉस फायरिंग में भी फंस जाते हैं. पत्रकारों पर पुलिस की तरफ से पड़ने वाले दबाव भी हैं. बस्तर के अंदरूनी इलाकों में घुसने के लिए रास्तेभर पड़ने वाले पुलिस चेक पोस्ट पर रुककर आगे जाने की अनुमति लेना. कई बार पुलिस द्वारा पत्रकारों को वापस कर दिया जाना और फिर नए व खतरनाक रास्तों से पुलिस को बगैर बताए उन इलाकों में पहुंचकर सच्चाई की पड़ताल करना बस्तर के पत्रकारों के काम का हिस्सा है. हालांकि इतने खतरों के बावजूद एक अनुमान के मुताबिक बस्तर में करीब 270 पत्रकार काम कर रहे हैं. राजधानी रायपुर से नियमित बस्तर जाकर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों की संख्या अलग है.
55 वर्षीय सुधीर जैन पिछले 35 सालों से बस्तर में ही रहकर पत्रकारिता कर रहे हैं. जगदलपुर में रहने वाले सुधीर दैनिक भास्कर, नवभारत जैसे हिंदी दैनिकों में अपनी सेवाएं दे चुके हैं. फिलहाल वे तीन समाचार एजेंसियों के लिए काम कर रहे हैं. सुधीर बताते हैं, ‘बस्तर में रिपोर्टिंग करते वक्त कोई भी दिन आपकी जिंदगी का आखिरी दिन साबित हो सकता है. आप इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि यह दो धारी तलवार पर चलने जैसा है, एक तरफ नक्सली हैं तो दूसरी तरफ पुलिस. खबर कवर करने से लेकर लिखने तक की प्रक्रिया इतनी चुनौतीपूर्ण होती है कि एक आम पत्रकार से हमारा तनाव सौ गुना ज्यादा बढ़ा हुआ होता है. कई बार ऐसा भी हुआ है कि कोई खबर निर्भीक होकर नहीं लिख पाया हूं.’
27 वर्षीय पवन दहट बताते हैं, ‘बस्तर में काम करते वक्त कई बार ऐसी परिस्थिति आई है कि हमने कई टुकड़ों में बंटी हुई लाश को समेटने का काम भी किया है. ऐसा किसी दबाव में नहीं, बल्कि मानवता के नाते किया है. यह भी हमारी नौकरी का एक अघोषित हिस्सा हो गया है. 2014 में लोकसभा चुनाव के दौरान 10 अप्रैल को बस्तर में मतदान था. मैं वहां रिपोर्टिंग के लिए पहुंचा था. कनकापाल नाम के एक धुर नक्सल प्रभावित इलाके में रिपोर्टिंग करते वक्त मेरा पैर एक प्रेशर बम पर पड़ गया. गनीमत तो यह थी कि वह प्रेशर बम फटा नहीं, नहीं तो मैं आज आपसे बात नहीं कर रहा होता.’ पवन पिछले तीन सालों से छत्तीसगढ़ में ‘द हिंदू’  के राज्य संवाददाता हैं. पवन बस्तर में अपनी धुआंधार रिपोर्टिंग के लिए जाने जाते हैं. पिछले तीन सालों में उन्होंने बस्तर के अनगिनत दौरे किए हैं और कई मामलों को राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया है. वह कहते हैं, ‘मुझे अच्छी तरह से याद है कि कनकापाल को उस दिन एक तरफ से नक्सलियों ने तो दूसरी तरफ से पुलिस ने घेर रखा था. बस्तर जैसे इलाकों में जहां नक्सलवाद अपने चरम पर है, रिपोर्टिंग करना बेहद मुश्किल भरा और खतरनाक होता है. नक्सलियों और पुलिस दोनों तरफ से अपने-अपने किस्म के दबाव होते हैं.’ पवन के अनुसार, ‘अगर आपको दोरनापाल से जगरगुंडा तक जाना हो तो हर चेकपोस्ट पर हाजिरी देनी होती है, बार-बार लिखवाना होता है कि आगे जाने का आपका मकसद क्या है. मुझे तो अपनी खबर रोकने के लिए कई बार पुलिस के आला अफसरों की तरफ से धमकियां भी मिली हैं, कई तरह के प्रलोभन भी दिए गए हैं. सरकेगुड़ा जैसी जगहों पर पुलिस ने हम पत्रकारों को जाने से रोका हैं, जहां ग्रामीणों के घर जला दिए गए थे. जहां तक बात नक्सलियों की है तो वे भी हमारा काम प्रभावित करने की कोशिश तो करते ही हैं. जिस इलाके में नक्सली नहीं चाहते कि पत्रकार आएं, वहां आप घुस भी नहीं सकते. अगर किसी गांव में उन्होंने लोगों को प्रेस से बात करने की मनाही कर दी है, तो आप लाख कोशिश कर लो, गांववाले सहयोग ही नहीं करते, बात ही नहीं करते. कई बार हमें सलाह दी जाती है कि हम बुलेटप्रूफ जैकेट पहनकर एंटी लैंड माइन व्हीकल में ही रिपोर्टिंग करने पहुंचे लेकिन यह संभव ही नहीं है. सीधी-सी बात है कि इतना सारा जोखिम होते हुए भी अगर सावधानियों पर ध्यान देने लगे तो बस्तर में रिपोर्टिंग कभी संभव ही नहीं हो पाएगी. यहां तो जान हथेली पर रखकर चलना ही पड़ता है.’
पत्रकार तामेश्वर सिन्हा कहते हैं, ‘अंतागढ़ से कोयलीबेड़ा जाते वक्त अर्धसैनिक बलों के चार कैंप पड़ते हैं. हर कैंप में हाजिरी लगानी पड़ती है. कई बार घंटों बैठा दिया जाता है. पत्रकार हूं, यह बोलना ही मूर्खतापूर्ण लगने लगता है. कौन हो, क्या हो, क्यों जा रहे हो, कई तरह के सवाल किए जाते हैं, हमें शंका की नजर से देखा जाता है. पुलिसवाले वापस जाने की नसीहत तक दे डालते हैं. ऐसे ही एक बार पुलिस के सवालों से जूझते हुए किसी घटना स्थल पर मैं पहुंचा और वहां नक्सलियों ने पुलिस का मुखबिर समझकर पकड़ लिया. बड़ी मुश्किल से उन्हें समझा पाया और जान छूटी.’ अबूझमाड़ में लंबे समय से काम कर रहे तामेश्वर नक्सल मामलों में दिलचस्पी रखते हैं. इन दिनों वह भूमकाल समाचार नाम के अखबार में अपनी सेवाएं दे रहे हैं. तामेश्वर बताते हैं, ‘बस्तर में तथ्यपूर्ण खबर लिखना पुलिस या नक्सलियों के निशाने पर आने जैसा है. यहां पत्रकारिता करना जोखिम का काम है. पुलिस पत्रकारों पर नक्सलियों के सहयोगी होने का आरोप लगा देती है, वहीं नक्सली पत्रकारों पर पुलिस के मुखबिर होने का आरोप लगाते हैं. हमें तो दोनों तरफ से शिकार होना पड़ता है.  हमारे कई वरिष्ठ साथी पत्रकारों को पुलिस ने नक्सलियों के सहयोगी होने के आरोप में जेल में ठूंस दिया है. जब नक्सली किसी पुलिस वाले का अपहरण करके ले जाते हैं तो उस समय पुलिस को पत्रकारों की याद आती है, बाकी समय हमें संदेह की नजरों से देखा जाता है. ठीक ऐसे ही जब नक्सलियों को अपनी बात रखनी होती है तो वे पत्रकारों को याद करते हैं, बाकी वक्त उन पर पुलिस के लिए मुखबिरी का आरोप लगाते रहते हैं.’ वह बताते हैं, ‘वैसे भी हम अंदरूनी इलाकों में काम कर रहे लोगों को प्रशासन व पुलिस पत्रकार ही नहीं मानती है. सबसे दुखद पहलू यह भी है कि हम जिस संस्थान के लिए काम कर रहे होते हैं, वह भी हमारी सुरक्षा की कोई जबावदेही नहीं लेता है.’
ऐसे ही चाहे पंखाजूर के 34 वर्षीय पत्रकार शंकर हों या 16 सालों से बस्तर में पत्रकारिता कर रहे 33 वर्षीय रजत बाजपेयी, प्रभात सिंह या बप्पी राय. सभी ने कभी न कभी किसी अपहृत पुलिसकर्मी की कुशलता का समाचार लाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाली है. 25 मई 2013 को हुए झीरम घाटी नक्सल हमले में पत्रकार नरेश मिश्र ने ही सबसे पहले पहुंचकर दिंवगत कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ल को अस्पताल पहुंचाने में मदद की थी. नरेश की ही मोटरसाइकिल से भागकर कांग्रेस विधायक कवासी लखमा ने अपनी जान बचाई थी. छत्तीसगढ़ के विभिन्न इलाकों में काम कर रहे इन पत्रकारों की जान की सुरक्षा का जोखिम उनका खुद का है. न तो सरकार और न ही उनका अपना संस्थान उनके प्रति किसी भी तरह की जबावदेही लेने को तैयार है. वर्षों से इन्हीं परिस्थितियों में काम कर रहे पत्रकार शायद अब मौत की इस मांद में काम करने के आदी हो गए हैं. हों भी क्यों न, पत्रकार लोकतंत्र का वह हिस्सा है, जिसने अपना काम निडरता, सहजता और जुनून की हद तक करने की कसम जो खाई है.
प्रियंका कौशल की रिपोर्ट तहलका के लिए साभार अधिक जानकारी के लिए तहलका की वेब साइड पर पढ़ सकते है http://tehelkahindi.com/journalism-in-naxal-areas/

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